आख़िर क्यों फूटा लालू के सबसे करीबी मित्र शिवानंद का गुस्सा? सुबह-सुबह किए चौंकाने वाले खुलासे; बिहार की राजनीति में हड़कंप
Monday, Nov 17, 2025-10:33 AM (IST)
Bihar Politics: लालू यादव के बेहद करीबी मित्र शिवानंद तिवारी ने भी उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। शिवानंद तिवारी ने आज सुबह सुबह ट्विट कर कहा कि बिहार का यह चुनाव कई मायनों में बेहद महत्वपूर्ण है। यह पहला चुनाव है जिसमें भाजपा अपने सहयोगियों के साथ बहुमत में आती दिखाई दे रही है। यह अलग बात है कि अभी वह कुछ दिनों तक नीतीश जी को ही मुख्यमंत्री बनाए रखेगी। संपूर्ण हिंदी पट्टी में बिहार ही एकमात्र ऐसा प्रदेश है जहां भाजपा अबतक अपनी सरकार नहीं बना पाई है। बिहार बुद्ध की धरती है। यहीं चंपारण के सत्याग्रह के ज़रिए महात्मा गाँधी संपूर्ण देश में जाने गये। यह लोहिया और जयप्रकाश के संघर्ष की धरती है। इस धरती ने अब तक स्वतंत्र रूप से हिंदुत्व की विचारधारा को अपनी धरती पर फलने फूलने नहीं दिया है। आज भी भाजपा यहां अन्य दलों से आयातित लोगों के कंधों पर ही टिकी हुई है। इन सबके बावजूद अपनी सरकार बनाने के सपने को साकार करने के चौखट तक तो भाजपा पहुँच ही गई है।
"लालू यादव को इस चुनाव ने सुंघा दिया धरती"
शिवानंद तिवारी ने तेजस्वी पर कड़ा जुबानी वार करते हुए कहा कि इस चुनाव ने लालू यादव को धरती सुँघा दिया है। मैं लालू यादव का नाम ले रहा हूँ, तेजस्वी का नहीं। क्योंकि तेजस्वी का अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है। यह लालू यादव की ही आधुनिक प्रतिकृति है। आपादमस्तक अहंकार से चूर। यह चुनाव लालू राजनीति के अवसान का भी स्पष्ट संकेत है। लालू की राजनीति की तो 2010 में ही इतिश्री हो गई थी। उस चुनाव में लालू यादव की पार्टी के मात्र बाईस विधायक ही विधान सभा में पहुँचे थे। हालत इतनी ख़राब हो गई थी कि लालू जी की पार्टी को मुख्य विपक्षी दल की मान्यता भी नहीं मिल पाई थी। जबकि परिस्थितियों ने लालू यादव को एक समय मुख्यमंत्री बना दिया था। उसके पहले कर्पूरी जी के निधन के बाद लालू यादव नेता विरोधी दल बने थे।
कांग्रेस को 90 के चुनाव मिली करारी हार
शिवानंद तिवारी ने आगे लिखा कि मझे याद है लालू नेता विरोधी दल का चुनाव लड़ रहे थे। उसके बाद भागलपुर में बहुत गंभीर सांप्रदायिक दंगा हुआ। दंगा के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री सत्येन्द्र नारायण सिंह को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। उनके बाद जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन भागलपुर दंगा ने कांग्रेस पार्टी के पैर के नीचे से ज़मीन खिसका दी थी। मुसलमानों ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया था। उसके बाद 90 का चुनाव कांग्रेस हारी, लेकिन किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। जनता दल के बाद वामपंथी पार्टियों और भाजपा को मिलाकर ही गैर कांग्रेसी सरकार बन सकती थी। लालू यादव जनता दल के विधायक दल के नेता थे. स्वभाविक तौर पर उनके नेतृत्व में गठबंधन बनता। नीतीश कुमार बाढ़ से सांसद हो चुके थे, लेकिन जनता दल का केंद्रीय नेतृत्व लालू यादव को मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहता था। विशेष रूप से वीपी सिंह। वे चाहते थे कि रामसुंदर दास जी मुख्यमंत्री बनें। गठबंधन के नेता चयन के लिए जो पर्यवेक्षक दिल्ली से आए थे उनको प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अपनी इच्छा बता दी थी। इसलिए पर्यवेक्षकों ने पहले यह प्रयास किया के सर्वसम्मति से रामसुंदर दास चुने जाएं। लेकिन शरद यादव भी उस बैठक में मौजूद थे। नीतीश कुमार के सहयोग से उन्होंने नेता पद के लिए विधायकों के बीच चुनाव कराने के लिए दबाव बनाया. जब चुनाव की नौबत आयी तो चंद्रशेखर जी ने अपनी ओर से रघुनाथ झा जी को भी उम्मीदवार बना दिया। इसका नतीजा हुआ कि लालू यादव बहुत आराम से चुनाव जीत गए और मुख्यमंत्री बनाए गए। इस प्रकार लालू यादव पहली मर्तबा कांग्रेस पार्टी, वामपंथी पार्टियों और भाजपा के सहयोग से बिहार के मुख्यमंत्री बने।
ऐसे चमका लालू का राजनीतिक जीवन
शिवानंद तिवारी ने बताया कि लालू यादव के राजनैतिक जीवन के लिए मंडल कमीशन लागू किया जाना एक सुनहरा अवसर लेकर आया। मंडल कमीशन के समर्थन में उनके अभियान ने उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा को राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचा दिया था। मंडल के विरोध में आडवाणी जी की रामरथ यात्रा ने उन्माद फैला दिया था। बिहार में आडवाणी जी की सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाली उस यात्रा को बिहार में रोकने और आडवाणी जी को गिरफ़्तार करने के बाद तो लालू यादव न सिर्फ़ राष्ट्रीय हीरो बन गए बल्कि उनकी ख्याति देश की सीमा लांघ गई। लेकिन लालू जी ने इन दो ऐतिहासिक घटनाओं से जो ताक़त और प्रतिष्ठा हासिल किया था उसे सँभालने और उस ताक़त के सहारे छोटी और कमज़ोर जातियों को ऊपर उठाने का काम नहीं किया।
नीतीश कुमार के बारे में कही ये बात
शिवानंद तिवारी ने कहा कि नीतीश कुमार अंदर से कमज़ोर आदमी हैं। जोखिम उठाने वाला कदम उन्होंने अपने जीवन में कभी नहीं उठाया। इसीलिए वे बिहार तक ही सीमित रह गए। काफी प्रयास के बाद वे लालू यादव से अलग हुए और सामाजिक न्याय आंदोलन को उन्होंने छोटी और कमजोर जातियों तथा महिलाओं तक पहुंचाया। नीतीश कुमार के कार्यक्रमों ने बिहार के समाज में बदलाव लाया। दूसरी ओर लालू यादव अपने परिवार से बाहर नहीं निकले। जाति उनके परिवार का ही विस्तार है। लालू और नीतीश की राजनीति का फर्क देखने के लिए इन दोनों ने किन लोगों को और किस आधार पर विधान परिषद और राज्यसभा में भेजा है इसकी सूची की तुलना कर लीजिए।
"नीतीश कुमार ने दिया 'महागठबंधन' नाम"
राजनीति लालू यादव और उनके परिवार के लिए व्यापार है। यही कारण है कि मंडल की लड़ाई के हीरो और आडवाणी जी के रामरथ को रथी सहित जेल पहुँचा देने वाले महाबली लालू यादव के 2010 विधानसभा के चुनाव में सिर्फ़ 22 विधायक जीता पाए। पर 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश जी ने लालू जी को संजीवनी पिला दी। उस चुनाव में नीतीश जी नरेंद्र मोदी को भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री का चेहरा बना कर 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ने के फ़ैसले से इस कदर बिदके कि उस गठबंधन से बाहर निकल कर उन्होंने लालू यादव से हाथ मिला लिया। विधानसभा में लालू और नीतीश दोनों साथ लड़े। कांग्रेस भी उस गठबंधन में शामिल थी। उस गठबंधन का नामकरण नीतीश कुमार ने किया था। महागठबंधन। नीतीश और लालू दोनों 101 और 101 सीटों पर लड़े थे। कांग्रेस के हिस्से 43 सीटें आईं थीं। लालू जी की पार्टी को 80 सीटों पर जीत मिली थी और नीतीश कुमार को 71 सीट पर।
"नीतीश कुमार को लालू पर था गंभीर संदेह"
नीतीश कुमार को गंभीर संदेह था कि लालू यादव ने जानबूझकर कुछ सीटों पर हमारे उम्मीदवारों को हरवा दिया। ताकि हमारी सीटें कम हो जाएँ। यह बात खुद नीतीश जी ने मुझसे कही थी लेकिन लालू यादव के साथ नीतीश कुमार का टिकना संभव कहाँ था ! पुनः वे लालू को छोड़कर भाजपा के साथ चले गये। फिर निकले और फिर लौट गए। बीते चुनाव में लालू यादव अपने 2010 के स्थान पर चले गए। नीतीश कुमार को 2020 के चुनाव में मोदी जी के हनुमान ने उनको 43 विधायक वाली पार्टी बना दिया था। इस चुनाव में भाजपा और जदयू दोनों 101 और 101 सीटों पर लड़े। लेकिन नीतीश जी आज विधानसभा में दूसरे स्थान पर हैं। यहां यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि नीतीश 43 विधायकों वाली पार्टी से 85 विधायकों वाली पार्टी बने. जबकि भाजपा 74 विधायकों वाली पार्टी से 89 बनी। यानी नीतीश कुमार 42 नई सीट जीते जबकि भाजपा सिर्फ़ 15 नई सीटें जीत पाई। भले ही भाजपा तकनीकी तौर पर अपने गठबंधन में सबसे बड़ी दिखती है। लेकिन हकीकत में नीतीश कुमार उस गठबंधन में सबसे आगे हैं। इसलिए नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा उन पर कृपा नहीं कर रही है।
"नीतीश कुमार गांधी के अनुयायी, जबकि भाजपा..."
नीतीश कुमार ने अपना कोई राजनीतिक वारिस नहीं बनाया है। यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि नीतीश जी के बाद उनको अपना नेता मानने वाले लोग कहाँ जाएंगे ? लालू यादव के यहाँ उनके जाने का तो सवाल ही नहीं है तो वैसी हालत में वे भारतीय जनता पार्टी के ही आधार में शामिल हो जाएंगे। इस तरह बिहार में हिंदुत्ववादियों का एकक्षत्र राज क़ायम हो जाएगा। पता नहीं नीतीश कुमार ने इस पर ग़ौर किया है या नहीं। वे अपने आप को गांधी का अनुयायी मानते हैं, जबकि भाजपा के लोग गांधी जी की हत्या करने वाले को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। बल्कि उसको गांधी के मुक़ाबले बड़ा देशभक्त मानते हैं. क्या नीतीश जी इन्हीं को बिहार के शासन की बागडोर सौंप देना चाहते हैं ?

