असली चिंता पहाड़ों की या अवैध खनन माफियाओं की? विपक्ष के 'अरावली बचाओ' अभियान पर उठ रहे सवाल
Wednesday, Dec 24, 2025-02:41 PM (IST)
Save Aravalli Campaign: कांग्रेस पार्टी इन दिनों राजस्थान में 'अरावली बचाओ' का जोरदार नारा लगा रही है। कांग्रेस का कहना है कि उन्हें पहाड़ों और पर्यावरण की चिंता है। लेकिन इस नारेबाजी के पीछे का सच कुछ और ही बताया जा रहा है। जानकारों का मानना है कि कांग्रेस की असली चिंता अरावली नहीं, बल्कि वे अवैध खनन माफिया हैं जो पिछले 20-25 साल से इन पहाड़ों को काट-काटकर करोड़ों कमा रहे थे। सुप्रीम कोर्ट के नए सख्त आदेश और उपग्रह (सेटेलाइट) तकनीक ने उनका अवैध धंधा लगभग बंद कर दिया है, इसलिए अब वे 'पहाड़ बचाने' का नाटक कर रहे हैं। दरअसल, पहले का सिस्टम बहुत आसान था। अवैध खनन करने वाले, वन या राजस्व विभाग के अधिकारियों को रिश्वत देकर जमीन के मैप (नक्शे) में हेराफेरी करवा लेते थे। फॉरेस्ट की जमीन को राजस्व की जमीन दिखा दिया जाता था या खनन वाले इलाके का रकबा बढ़ा दिया जाता था। इस तरह अवैध खनन कानूनी कागजात के सहारे होता रहा। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि अरावली क्या है और क्या नहीं। साथ ही, अब उपग्रह से ली गई तस्वीरों की लगातार निगरानी होती है, जिससे जमीन पर क्या हो रहा है, यह साफ दिख जाता है। नक्शे में हेराफेरी अब आसान नहीं रही। यही वजह है कि अवैध खनन के पैरोकार परेशान हैं।
25 साल तक पहाड़ गायब होते रहे, लेकिन हर तरफ थी चुप्पी
सबसे दिलचस्प बात यह है कि जब 1998 से लेकर 2023 तक अरावली का सबसे ज्यादा विनाश हुआ, उस दौरान कांग्रेस ने 'अरावली बचाओ' का कोई अभियान नहीं चलाया। आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस के शासनकाल में राजस्थान की 31 पहाड़ियां ही पूरी तरह गायब हो गईं। हजारों की संख्या में अवैध खदानें चलीं। 2005 से 2012 के बीच ही 16 लाख टन से ज्यादा खनिज अवैध तरीके से निकाले गए। 2019 की एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद 18 खनन पट्टे (लीज) नवीकृत कर दिए गए। उस समय कांग्रेस चुप क्यों थी? अब ये डर फैलाया जा रहा है कि 90 फीसदी पहाड़ खत्म हो जाएंगे। कांग्रेस कह रही है कि सुप्रीम कोर्ट की नई 100-मीटर वाली परिभाषा से अरावली का 90% हिस्सा खनन के लिए खुल जाएगा। यह पूरी तरह गलत और गुमराह करने वाला दावा है। असलियत यह है कि नए वैज्ञानिक नियमों के मुताबिक, अरावली के पूरे क्षेत्र में से सिर्फ 0.19% हिस्से पर ही खनन का विचार हो सकता है। बाकी 99% से ज्यादा हिस्सा पूरी तरह सुरक्षित रहेगा। यहां तक कि जो छोटी पहाड़ियां हैं, उन पर भी 1 किमी का बफर जोन, पानी के स्रोतों की सुरक्षा और सख्त पर्यावरणीय शर्तें लागू होंगी। नई व्यवस्था ज्यादा पारदर्शी और वैज्ञानिक है।

अभियान का चेहरा कौन? एक पूर्व मंत्री जो खुद खनन कंपनी के मालिक!
इस पूरे 'अरावली बचाओ' आंदोलन को कांग्रेस ने एक पूर्व मंत्री रामलाल जाट के हवाले कर दिया है। यही इस नाटक की सबसे बड़ी विडंबना है। श्री जाट और उनका परिवार 'अरावली ग्रेनाइट मार्बल प्राइवेट लिमिटेड' नाम की एक खनन कंपनी के मालिक हैं। जब वे राजस्व मंत्री थे, तब उन पर जंगल की जमीन को खनन के लिए आसान बनाने के आरोप लगे थे। 2023 में भीलवाड़ा में एक ग्रेनाइट खदान पर अवैध कब्जे के मामले में उनके खिलाफ केस भी दर्ज हुआ था। सवाल यह है कि जिस व्यक्ति पर खुद अवैध खनन और जमीन पर कब्जे के आरोप हों, वह अचानक पहाड़ों का सबसे बड़ा हितैषी कैसे बन गया? पुराने समय में 'पूर्ण प्रतिबंध' के नाम पर एक ऐसी अव्यवस्था बन गई थी, जिसका फायदा सिर्फ अमीर माफिया और भ्रष्ट अधिकारी उठा रहे थे। ब्लैक मार्केट में रेत और पत्थर की कीमत आसमान छूने लगी। इसका सीधा असर गरीब और मध्यम वर्ग पर पड़ा, जो अपना एक छोटा मकान भी नहीं बना पाते थे क्योंकि निर्माण सामग्री बहुत महंगी हो गई थी। नई व्यवस्था से यह कृत्रिम महंगाई कम होगी और 'प्रधानमंत्री आवास योजना' जैसे कार्यक्रमों को सस्ती सामग्री मिल सकेगी।
नए नियम: सख्त, पारदर्शी और विज्ञान पर आधारित
2025 की नई खनन नीति सबकुछ बदल देने वाली है। अब कोई भी मनमाना फैसला नहीं ले सकता। मास्टर प्लान में बदलाव के लिए सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी जरूरी है। हर तीन महीने पर स्वतंत्र ऑडिट होगा। उपग्रह हर हफ्ते नजर रखेगा। अगर कोई कंपनी नियम तोड़ेगी तो उसकी जमा राशि (बॉन्ड) जब्त कर ली जाएगी और उसे पहाड़ को फिर से हरा-भरा करना होगा। आम लोगों और सामाजिक संगठनों को भी नियमों पर सवाल उठाने का अधिकार होगा। साफ है कि 'अरावली बचाओ' का यह नारा एक राजनीतिक दांव से ज्यादा कुछ नहीं लगता। जब पहाड़ कट रहे थे, तब चुप्पी थी। अब जब वैज्ञानिक और पारदर्शी व्यवस्था से अवैध धंधा बंद हो गया है, तब पहाड़ों की चिंता सामने आई है। असल में यह अभियान अरावली को बचाने के लिए नहीं, बल्कि उन लोगों के अवैध फायदे को बचाने के लिए है, जो दशकों से इन पहाड़ों को नोच रहे थे। गरीबों और पर्यावरण के असली हितैषी वे नहीं हैं जो झूठे नारे लगाते हैं, बल्कि वे हैं जो पारदर्शी और निष्पक्ष व्यवस्था लाकर अवैध माफियाओं पर लगाम लगाते हैं।
सीमा झा, पत्रकार
(ये पत्रकार का निजी विचार है।)

