"अधिकारियों को पसंद है शराबबंदी, उनके लिए इसका मतलब मोटी कमाई", पटना हाईकोर्ट ने की तीखी आलोचना
Saturday, Nov 16, 2024-11:31 AM (IST)
पटना: पटना उच्च न्यायालय ने शराबबंदी कानून को लागू करने में लापरवाही बरतने पर एक पुलिस निरीक्षक के खिलाफ जारी किए गए पदावनत आदेश को रद्द करते हुए टिप्पणी की कि ये प्रावधान पुलिस के लिए उपयोगी हो गए हैं, जो तस्करों के साथ मिलकर काम करती है।
'अधिकारियों को पसंद है शराबबंदी'
न्यायमूर्ति पूर्णेंदु सिंह ने 29 अक्टूबर को दिए अपने एक फैसले में कहा, ‘‘न केवल पुलिस अधिकारी, आबकारी अधिकारी, बल्कि वाणिज्यिक कर विभाग और परिवहन विभाग के अधिकारी भी शराबबंदी पसंद करते हैं। उनके लिए इसका मतलब है मोटी कमाई। दरअसल, शराबबंदी ने शराब और अन्य प्रतिबंधित वस्तुओं के अनधिकृत व्यापार को बढ़ावा दिया है। ये कठोर प्रावधान पुलिस के लिए एक सुविधाजनक उपकरण बन गये हैं जो तस्करों के साथ मिलकर काम करती है।" यह आदेश मुकेश कुमार पासवान द्वारा दायर की गयी एक रिट याचिका के जवाब में आया, जो पटना बाईपास थाने में थानाध्यक्ष (एसएचओ) के रूप में कार्यरत थे। राज्य के आबकारी विभाग के अधिकारियों द्वारा छापेमारी के दौरान विदेशी शराब बरामद होने के बाद पासवान को निलंबित कर दिया गया था। जांच के दौरान बचाव प्रस्तुत करने और अपनी बेगुनाही का दावा करने के बाद भी 24 नवंबर, 2020 को राज्य सरकार ने पासवान को पदावनत किया गया था।
''शराबबंदी से गरीबों पर अत्याचार'
बिहार में अप्रैल 2016 में नीतीश कुमार सरकार ने शराब की बिक्री और सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया था। अदालत ने कहा, "शराब की तस्करी में शामिल सरगनाओं या सिंडिकेट संचालकों के खिलाफ बहुत कम मामले दर्ज किए जाते हैं, जबकि शराब पीने वाले या शराब की त्रासदी के शिकार होने वाले गरीबों के खिलाफ बड़ी संख्या में मामले दर्ज किए जाते हैं। मोटे तौर पर, यह राज्य के गरीब लोग हैं, जो इस अधिनियम का खामियाजा भुगत रहे हैं।'' अदालत ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 47 में जीवन स्तर को ऊपर उठाने और व्यापक रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने के लिए राज्य का कर्तव्य निर्धारित किया गया है और इस तरह राज्य सरकार ने उक्त उद्देश्य के साथ बिहार मद्यनिषेध और उत्पाद शुल्क अधिनियम, 2016 लागू किया, लेकिन कई कारणों से, इतिहास के गलत पक्ष में यह (कानून) खुद को पाता है।
अदालत ने कहा कि जो लोग इस अधिनियम का प्रकोप झेल रहे हैं, वे दिहाड़ी मजदूर हैं जो अपने परिवार के एकमात्र कमाने वाले सदस्य हैं। अदालत ने कहा कि जांच अधिकारी अभियोजन मामले में लगाए गए आरोपों की किसी भी कानूनी दस्तावेज से पुष्टि नहीं करते हैं और ऐसी कमियां छोड़ दी जाती हैं जिससे माफिया सबूतों के अभाव में छूट जाते हैं। उच्च न्यायालय ने कहा कि विभागीय कार्यवाही औपचारिकता मात्र रह गई है। अदालत ने सजा के आदेश को रद्द करने के साथ याचिकाकर्ता के खिलाफ शुरू की गई विभागीय कार्यवाही को भी रद्द कर दिया।